देवी शक्ति को रूप देने में जुटी खुद नारी शक्ति, बना आजीविका का साधन

देवी शक्ति को रूप देने में जुटी खुद नारी शक्ति, बना आजीविका का साधन

- डुमरांव में मां दुर्गे की प्रतिमाओं को मूर्त रूप दे रही पंचरत्नी

सौरभ केशरी/डुमरांव

नवरात्र में मां के पट खुलने में कुछ ही दिन अब शेष बचे हैं। पूजा-पंडालों में कारीगर देवी प्रतिमाओं के निर्माण में जुटे है। आयोजक भी पंडालों को खूबसूरत तरीके से सजावट कर रहे है। इन सबके बीच डुमरांव के पुराना धर्मशाला के समीप एक कुम्हार के आंगन में चूड़ियों की खनखनाहट के बीच मां देवी अवतरित हो रही है। महिला मूर्तिकार पंचरत्नी देवी मां दुर्गे के विभिन्न रूपों को मूर्त रूप देने में लीन है। उनकी नजरों की सजगता और मिट्टी से सने-सधे हाथों की कलाकारी देख सभी अचंभित है। पंचरत्नी देवी स्व. गुप्तेश्वर प्रसाद की पत्नी है, जिन्होंने मूर्ति कला को अपने रोजगार का साधन बनाया। वह कहती है कि मेरे मायके में भी पुरुषों द्वारा ही मूर्तियां बनायी जाती रही है। मेरे पिता ने मुझे यह हुनर सिखाया है। जो आज जीविका का साधन बन गया है। इटाढ़ी थाने के कुकुढ़ा गांव निवासी स्वर्गीय विश्वनाथ सिंह की बेटी पंचरत्नी की माने तो इनके पिता जिला के चर्चित मूर्तिकार के रूप में रहे है। उनकी कलाओं से बनायी गयीं प्रतिमाओं की मांग बढ़ने लगी और लोग दूर-दूर तक बुलाने लगे। पिता ने मुझे हुनरमंद बनाया और मुझे भी मूर्तिकला का जुनून सवार होने लगा। दो बहनों में बड़ी होने के नाते मेरी शादी पहले ही हो गयी। ससुराल में भी इस पेशे को पूर्व से ही अपनाया गया था, लेकिन ससुर रामजन्म की मौत के बाद परिवार का बोझ मेरे पति पर आ पड़ा। इस पेशे से घर चलाना आसान नही था। रोजी-रोटी व भविष्य की समस्या परेशान करने लगी। इसके बाद पति के साथ हाथ बंटाने लगी। आज अपने बदौलत मिट्टी के मूर्ति में जान डालती हूं।

 आसान नहीं है मूर्तिकार बनना

पंचरत्नी कहती है कि मूर्तिकार बनना आसान नही है। कुम्हार परिवारों में अधिकांश लोग मूर्तिकला जानते है। लेकिन यहां काम करने के लिए हाथों की कला में माहिर होना जरूरी है। जिस मूर्तिकला के कारण मेरे पति की पहचान डुमरांव इलाकें में है, उस कला को मैं कैसे छोड़ सकती थी। आखिरकार यही तो हमारी पहचान है और पहचान के बिना हमारा वजूद ही क्या रह जाता।

 आमदनी से छह माह का होता है गुजारा

मूर्तिकला ही इनके परिवार का पेट पालने का जरिया है। पंचरत्नी कहती है कि दुर्गापूजा के समय 18 से 20 मूर्तियां बनाने का आर्डर मिल जाता है। इनकी बनायी हुई मूर्तियां डुमरांव के कई पंडालों सहित ग्रामीण इलाकों में भी सजती है। इस मूर्ति से हुई आमदनी से छह महीने तक परिवार का गुजारा आराम से होता है। वे दुर्गापूजा के अलावे अन्य पर्व त्योहारों के लिए अलग अलग देवी देवताओं की मूर्तियां भी बनाती है।

 बंगाल के मूर्तिकारों से बढ़ी परेशानी

कुमारटोल कोलकाता का वह हिस्सा है जहां के मूर्तिकार बिहार के छोटे-छोटे जगहों पर भी जाकर मूर्ति का निर्माण करने लगे है। विगत पांच वर्षों के अंदर डुमरांव में भी आयोजक इन कलाकारों से मूर्ति बनवाने लगे है और धीरे-धीरे स्थानीय मूर्तिकारों का कद्र कम होता गया। ऐसी हालत में मुश्किलें बढ़ गयी है। ग्राहकों को स्थानीय मूर्तिकार कम दर में ही मूर्तियों को बेचने पर विवश होते है।