अधर्मी भी चाहता है धर्म की व्यापकता का लाभ -जीयर स्वामी

अधर्मी भी चाहता है धर्म की व्यापकता का लाभ -जीयर स्वामी

खेती व्यापार नौकरी, मकान और दुकान बनाना-चलाना धर्म है : स्वामी जी

धर्म सिर्फ आस्था की चीज नहीं, बल्कि एक मानक भी है। धर्म की सर्व व्यापकता का समयोचित लाभ सभी प्राप्त करना चाहते हैं। जिस व्यक्ति के जीवन में धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, निग्रह, धी, सत्य का भाव एवं क्रोध पर नियंत्रण हो तो वह अपने को धार्मिक समझे। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिए गए हैं। ये लक्षण जिस व्यक्ति में विद्यमान हो उसे अपने को धार्मिक समझना चाहिए। जिन नियमों पर व्यक्ति से लेकर विश्व की व्यवस्था टिकी हुई है, उनका निस्वार्थ । पालन करना सामान्य धर्म है। सृष्टिकर्ता के प्रति कृतज्ञता, भक्ति अर्पित करना मानव का परम धर्म है। श्री जीयर स्वामी जी ने कहा कि नैमिषारण्य में व्यास गद्दी पर बैठे सूत जी, श्री सुकदेव जी द्वारा राजा परीक्षित को भागवत कथा सुनाकर मुक्त किए जाने की बात कहीं गयी। सूत जी ने मंगलाचरण करते हुए कहा कि जैसे कीमती वस्तु की सुरक्षा हेतु एक गांठ से विश्वास नहीं होता। इसलिए दूसरा गांठ बाँध दिया जाता है। उसी भाव से सूत जी ने दोबारा मंगलाचरण किया। जन्म, पालन, संहार और मोक्ष प्रदान करने वाले सर्व शक्तिमान, जिसके प्रकाश से संसार प्रकाशित है, वैसे सत्य स्वरुप का वंदन किया सत्य स्वरुप की सत्ता से अलग दुनिया के अस्तित्व की कामना संभव नहीं। वैसे भगवान वामन, नृसिंह, राम और श्रीकृष्ण के रुप में जाने जाने वाले परमात्मा का मैं वंदन करता हूँ।  जीयर स्वामी जी ने कहा कि धर्म की व्यापकता की परिधि का समयोचित लाभ बालक, युवा, वृद्ध, चोर, अपराधी, जुआड़ी और शराबी भी उठाना चाहते हैं। बालक जब कोई खेल खेलता है, तो दोस्तों को ईमानदारी से खेलने की नसीहत देता है। जुआ खेलने वाला भी बेईमानी नहीं करने की हिदायत देता है। शराबी भी दुकानदार को दो नम्बर का शराब नहीं देने और कीमत अधिक नहीं लेने के व्यवसाय धर्म की सीख देता है। अपराधी कभी भी अपने परिजनों को अपराधी नहीं बनाना चाहता। यानी बुरा व्यक्ति भी धर्म की दुहाई और सीख देता है। वह नहीं चाहता कि परिजन उसके मार्ग का अनुशरण करें। कैकई ने धर्म की आड़ में दशरथ जी को भगवान राम का वनगमन के लिए बाध्य कर दिया। धतराष्ट्र ने भी धर्म क्षेत्रें का पचुका दी। \

स्वामी जी ने कहा कि होता है एक धर्म और एक परमधर्म 

स्वामी जी ने कहा कि एक धर्म और एक परमधर्म होता है। खेती व्यापार नौकरी, मकान और दुकान बनाना-चलाना धर्म है। जिसके द्वारा संसाधन व्यवस्था मिले है, उनके प्रति प्रेम एवं आदर की भावना करना परमधर्म है। यक्ष प्रश्न की चर्चा । करते हुए उन्होंने कहा कि मनुष्य घर-परिवार, पुत्र पुत्री, घन-वैभव और पद-प्रतिष्ठा को अपना मानते हैं, लेकिन उन सबको देने वाले, जिनके कारण वे इस दुनिया में हैं, उनको नहीं मानना ही आश्चर्य है। जो दैहिक, दैविक और भौतिक तापों का उन्मूलन करने वाले हैं, उन्हें भूलना नहीं चाहिए। सत्य शांति है और धर्म आनन्द है। ऐसे सत्य एवं धर्म स्वरुप परमात्मा का नित्य वंदन करना चाहिए। परमात्मा धर्म के विग्रह ( मूर्त्त रूप) हैं।