रिश्तो की घटती मिठास तथा बुजुर्गों के प्रति उदासीन रवैए से वृद्धाश्रम : अंकेश सिंह सोलंकी

रिश्तो की घटती मिठास तथा बुजुर्गों के प्रति उदासीन रवैए से वृद्धाश्रम : अंकेश सिंह सोलंकी

केटी न्यूज। बक्सर

आधुनिक जीवन में रिश्तो की घटती मिठास तथा बुजुर्गों के प्रति उदासीन रवैए से वृद्धाश्रम तथा उसमें रहने वालो की संख्या बढ़ रही है। पिछले कुछ दशकों में इसमें और तेजी आई है। डुमरांव राज हाई स्कूल के शिक्षक अंकेश सिंह सोलंकी ने "वृद्धाश्रम" शिक्षक कविता के माध्यम से इस संस्कार हीन कटु सत्य को बखूबी उतारा है। केशव टाइम्स उनकी कविता को हूबहू अपने पाठकों के सामने रख रही है। इसे पढ़ अपनी प्रतिक्रिया जरूर देंगे।

वृद्धाश्रम

आधुनिक जीवन का कटु सत्य है,

संस्कार हीनता का प्रकट रूप है।

पुराने दिनों की पुनरावृत्ति ही तो है

यह वृद्धाश्रम........................

लगता है जैसे कल ही की बात हो

माता पिता को पहुंचा के आए थे

इस वृद्धाश्रम के दरवाजे तक ।

उनकी आंखो में कितने प्रश्न थे

उनको अनदेखा करते हुए 

अपनी मजबूरियां गिनाई थी

और इस वृद्धाश्रम की खूबियां।।

आधुनिक जीवन................

उनकी शून्य में निहारती आंखो से

पूरे जीवन भर के अमिट वादों से

एक झटके में रिश्ता तोड़ दिया था

अंधकार में तड़पता छोड़ दिया था

पोते पोतियों के लिए छलकते

उनके आंसू भी तो पिघला न सके

मेरे स्वार्थी हृदय के निष्ठुरपन को।

आधुनिक जीवन...................

नौकरी - पत्नी तो एक बहाना था

उद्देश्य तो उनके टोका टोकी और

उनके खर्चे से मुक्ति पाना था।

फिर बड़े शौक से आधुनिकता

का बखान करते कब जीवन की 

शाम हुई ,अपनी भी जिंदगी

वीरान हुई , पता ना चल सका।।

आधुनिक जीवन................

आज वही पुराना चिर परिचित,

सत्य मेरे  भी सामने खड़ा है।

फिर उसी वृद्धाश्रम के दर पर,

मेरे पुत्र छोड़ने आए हैं हमें भी।

हृदय में एक मौन चित्कार है,

कोई तो उन्हें पल भर टोक दे

कितने नाजों से तुम्हे पाला था।

आधुनिक जीवन.................... 

अनगिनत रातें जागते काटी थी,

तुम्हारी मार को हंसते सहा था ।

तुम्हारे भविष्य के लिए जीवन,

 तिनके तिनके कर जला था ।।

विवश सा देख रहा था उन्हें जाते,

भूतकाल की मधुर यादों में खोया।

यह सोचते हुए की यह पुनरावृत्ति

 फिर एक बार  लौट कर न आए,  

मेरे पुत्र के जीवन में भी  !

आधुनिक जीवन..................