राजसिंहासन पर प्रभु श्रीराम की चरण पादुका रखते ही करतल ध्वनियों से गूंजा किला मैदान
श्रीराम लीला समिति बक्सर के तत्वावधान में रामलीला मंच पर चल रहे 21 दिवसीय विजयादशमी महोत्सव के ग्यारहवें दिन शनिवार को देर रात्रि मंचित रामलीला में दशरथ मरण तथा चित्रकुट में भरत मिलाप का मंचन किया गया।
- रामलीला में दशरथ मरण, चित्रकूट में भरत मिलाप व रासलीला में गोवर्धन डाकू प्रसंग का हुआ मंचन
केटी न्यूज/बक्सर
श्रीराम लीला समिति बक्सर के तत्वावधान में रामलीला मंच पर चल रहे 21 दिवसीय विजयादशमी महोत्सव के ग्यारहवें दिन शनिवार को देर रात्रि मंचित रामलीला में दशरथ मरण तथा चित्रकुट में भरत मिलाप का मंचन किया गया।
इस दौरान रामलीला मंडली ने दिखाया कि जब मंत्री सुमंत प्रभु श्रीराम लक्ष्मण एवं सीता को गंगा के समीप छोड़कर लौटते हैं, तो वह काफी दुखित एवं व्यथित रहते हैं। इधर निषाद राज भी लौट रहे होते हैं। उन्होंने मंत्री सुमन्त को दुखित व व्याकुल देखकर उन्हें समझाया और उनको सकुशल अयोध्या पहुंचाने के लिए उनके रथ पर अपना सारथी उनके साथ लगा दिया। मंत्री सुमंत विलाप करते हुए सायंकाल के बाद अयोध्या पहुंचते हैं और महाराज दशरथ से जाकर सारा हाल सुनाते हैं। मंत्री सुमंत की बात सुनकर दशरथ व्यथित हो जाते हैं और पूर्व में घटित श्रवण कुमार की घटना को रानी कौशल्या से जाकर बताते हैं।
श्रीराम की चिंता में दशरथ का देहांत हो जाता है। यह खबर सुनकर गुरु वशिष्ठ आते हैं वे एक दूत भरत को बुलाने के लिए उनके ननिहाल भेजते हैं। भरत जब आते हैं और राम, लक्ष्मण को नहीं देख उनके बारे में पूछते हैं तथा सारा वृत्तांत सुन मां कैकई को नाना प्रकार के वचन सुनाते हैं व अपने पिता का अंतिम संस्कार करते हैं।
अंतिम संस्कार के बाद भरत श्रीराम को मनाने के लिए चित्रकूट जाते हैं। भरत उनसे अयोध्या लौटने की विनती करते हैं, लेकिन वे पिता के वचनों द्वारा वचनबद्ध होने की बात कह कर लौटने से इनकार कर देते है। तब भरत उनकी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौटते हैं और राजसिंहासन में पादुकाओं को स्थापित कर देते हैं। यह दृश्य देखकर दर्शक भाव विभोर हो जाते हैं।
श्रीकृष्ण लीला में मंचित हुआ डाकू गोवर्धन का प्रसंग
इसके पूर्व दिन में श्री कृष्णलीला के दौरान गोवर्धन डाकू प्रसंग का मंचन किया गया। जिसमें दिखाया गया कि डाकू गोवर्धन एक बहुत बड़ा लुटेरा होता है जो एक दिन अपने आप को बचाते-बचाते भगवान श्रीकृष्ण की कथा में छुपने के इरादे से बैठ गया। उस वक्त कथा में भगवान कृष्ण के श्रृंगार का वर्णन चल रहा था, जिसमें कथावाचक ठाकुरजी के सिर पर हीरे और माणिक मोती लगे हुए सोने के मुकुट, कमर पर सोने की काथली, हाथ में सोने की छड़ी पैरों में सोने के नूपुर का वर्णन कर रहे थे। डाकू गोवर्धन ने सोचा कि जो व्यक्ति ऊपर से नीचे तक सोना पहनता है उसे लूटने से कितना फायदा होगा और इसी उद्देश्य से वह कृष्ण को लुटने वृंदावन की ओर चल पड़ता है। रास्ते में उसे कथावाचक की बेटी मिलती है जो कृष्ण के दर्शन के लिए वृंदावन जा रही थी। गोवर्धन डाकू भी उनके साथ होकर चल पड़ता है, रास्ते में दोनों ही ठाकुरजी का नाम रटते जा रहे थे। गोवर्धन कृष्ण को लूटने के उद्देश्य से बार-बार नाम रट रहा था। बहुत समय बाद जब वे दोनों वृंदावन पहुंचे तो कई दिन तक कृष्ण को ढूंढते रहे। कथावाचक की बेटी कृष्ण की भक्ति में विलीन होकर उन्हें पुकार रही थी और डाकू गोवर्धन सोना लुटने के लालच में उन्हें बार-बार पुकार रहा था। अंत में जब कृष्ण भगवान दोनों को दर्शन देते हैं तो कथावाचक की पुत्री उनके दर्शन मात्र से धन्य हो जाती है और कृष्ण उसे अपनी रास सखियों में शामिल होने का वरदान देते हैं। वहीं जब डाकू गोवर्धन कृष्ण का सोना लूटने के उद्देश्य से कृष्ण को छूता है तो उसका भाव बदल जाता है और वो लूटने का भाव छोड़कर सेवा भाव में परिवर्तित हो जाता है। भगवान कृष्ण उसे ये कहकर वरदान देते हैं कि मेरा नाम चाहे तुमने बुरे भाव से ही लिया हो लेकिन उसमें तुम्हारा पूरा समर्पण था और तुम्हारी हर सांस से मेरा नाम सुनाई दे रहा है, इसके लिए मैं तुम्हे अपना सखा होने का वरदान देता हूं।