संतान की रक्षा और लंबी आयु के लिए माताएं करती हैं जिउतिया, जुड़ी है पौराणिक मान्यताएं

- मान्यता, कथा श्रवण मात्र से नहीं सहना पड़ता है पुत्र वियोग
प्रकाश कुमार बादल/केसठ
केटी न्यूज/डुमरांव
जीवित पुत्रिका व्रत माताएं अपनी संतान की कुशलता एवं लंबी उम्र की कामना के लिए करती है। खर जिउतिया (जितिया) के नाम से प्रसिद्ध कठिन निर्जला उपवास का व्रत 6 अक्टूबर शुक्रवार को अष्टमी को किया जाएगा जो पंचांगानुसार और शास्त्र सम्मत है। इस व्रत के निमित्त व्रती मातओं ने गुरूवार को नहाय खाय किया, शुक्रवार को पूरे दिन कठिन निर्जला उपवास के बाद अगले दिन पारण करेंगी। नहाय खाय के दिन व्रत करने वाली माताएं गंगा नदी, स्नान ध्यान से शुद्ध निवृत हो अपनी अपनी लोक कुल परंपरानुसार भिन्न भी हो सकती है जिसमें पहले ओठगन की विधि, मडुआ मडुवे की बनी रोटी, सतपुतिया, झिंगुनी और नोनी की साग और पुआ पकवानों को ग्रहण करती है। रात में पकवान को चील और सियारिन को समर्पित करती हैं
वही देर रात में अपने पितरों के निमित्त भी झिंगुनी के पत्ते पर छत पर दक्षिण या अन्य दिशा में अग्रासन भोग अर्पित करती है। वही व्रत के दिन व्रती सम्पूर्ण दिन मुँह में बिना कुछ डालें यानी कठिन निर्जला व्रत करती है। जिसमे दातुन तक भी नहीं करती और न ही कोई मुँह में तृण ( खर) डालती है। मान्यता है कि मुंह में कुछ जाने से व्रत भंग हो जाता है और उसका प्रायश्चित करना पड़ता है। इसके बाद सारा दिन निर्जला रहने के बाद सूर्यास्त होने के पूर्व गंगा नदी, सरोवर या सामान्य स्नानादि से शुद्ध हो कर प्रदोषकाल में व्रतीगण गौरीशंकर, माता जीवित्पुत्रिका राजा कुश का जीमूतवाहन बनाकर सामूहिक रुप से शास्त्रोक्त षोड्षोपचार पूजन विधिवत या अपने लोक परम्परानुसार विधिपूर्वक कर पूजा थाल में जीउतिया सूत्र जीमूतबन्धन या जितबन्धन सूत्र का धागा कहते हैं।
यह रेशमी लाल, पीले धागे या सामान्य धागे में भी बना या स्वर्ण में बना लॉकेट धागा में सूत्र का होता हैं और बरियार का पौधा को लेकर साक्षी मान कर राजा जीमूतवाहन, चिल्हो- सियारिन, अरियार बारिया आदि की व्रतकथा का श्रवण करती है, जिसका पौराणिक महत्त्व है। कहा जाता है कि इस व्रत में कथा नहीं सुनने से व्रत पूर्ण नहीं होता है और कथा सुनने मात्र से अपने पुत्र संतान का उन्हें वियोग नहीं सहना पड़ता है। वहीं व्रत की विधिपूर्वक पूजन और व्रत कथा का श्रवण कर व्रती जिउतिया के धागे को पुत्रों की सदैव रक्षा, सुख समृद्धि और लम्बी आयु की कुशलता की कामना व प्रार्थना कर अपनी संतानों को गले में पहना कर रक्षार्थ धारण कराती हैं और पुनः पारण के बाद स्वयं पहनती है। व्रत का पारण प्रातः स्नानादि से पवित्र हो पूजन कर पारणार्थ बने शुद्ध सात्त्विक भोजन जैसे मडुआ की रोटी झिंगुनी और दाल चावल पकौड़ा आदि।
महाभारत काल से चली आ रही है परंपरा
इस व्रत से द्वापरयुग के महाभारत युद्ध काल का एक प्रसंग जुड़ा है। कथानुसार उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चंे को गुरुद्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर जान से मारने का प्रयास किया। जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी सभी पुण्यों का फल एकत्रित कर उत्तरा के गर्भ में पल रहें बच्चे को दिया, इसके फलस्वरुप उत्तरा के गर्भ में पल रहा बच्चा पुनर्जीवित हो गया। यही बालक बड़ा हो कर राजा परीक्षित बना। उत्तरा के गर्भ में दोबारा बच्चें के जीवित हो जाने के कारण ही इस व्रत का नाम तभी से जीवित्पुत्रिका व्रत पड़ा। तभी से ही सन्तान पुत्र की रक्षार्थ लम्बी आयु की कामना और स्वास्थ्य रक्षा कामना और सन्तान का वियोग नहीं सहना पड़े इस लिए माताओं द्वारा जीवित पुत्रिका का व्रत किया जाता हैं।