गुजरे जमाने की बात बनकर रह गई सावन में झूला डालने की परंपरा

गुजरे जमाने की बात बनकर रह गई सावन में झूला डालने की परंपरा

- आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त हो गई कजरी परंपरा की तान

- अब नहीं सुनने को मिलती बदरा आई गइले, ना घरे अइले, मोरे पिया परदेशिया ना

केटी न्यूज/डुमरांव 

और एक जमाना था, जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन और बाग बगीचों में लगे पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे और घर की महिलाएं कजरी गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थी। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और फ्लैटनुमा इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व भी लगभग समाप्त हो गया। ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले और कजरी परंपरा की तान कहीं-कहीं ग्रामीण इलाकों में ही सुनाई देते हैं।

कालांतर में कजरी की धुन इतनी लोकप्रिय हुई कि शास्त्रीय संगीत के घरानों ने भी इसे अपनाकर वाहवाही लूटी, लेकिन सावन में काली घटाओं के बीच गाए जाने वाले इस ऋतु राग पर आधुनिकता के काले बादल छा गए है। 

-उमड़ते बादल को खूब भाती है कजरी धुन 

कभी सावन महीना शुरू होते ही कजरी की धुन सुनाई पड़ने लगती थी, लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई हैं। भोजपुरी के गीतकार कमल किशोर ‘राजू’ पारंपरिक कजरी के धुन को याद कर गुनगुनाते हुए कहते हैं बदरा आई गईले, ना अईले हमरो पियां परदेशियां ना जैसी धुन अब नहीं सुनाई देती। यह पारंपरिक गीत इतनी लोकप्रिय थी

कि इसे हर घरों में गाया जाता था। भोजपुरी के चर्चित गायक अशोक मिश्र ने पिया मेहंदी लिआद मोतीझील से, जाके साइकिल से ना... और हरि हरि सावन में लागेला सोमारी... आदि गीतों की धुन गुनगुनाते हुए बताया कि आज के दौर में गायक व गीतकार भी ऐसे गीतों से दूरी बना रहे है, जिससे यह विधा दूर होती जा रही है।

- व्यक्ति के जीवन को प्रकृति से जोड़ती है कजरी 

कजरी धुन की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह कहना कठिन है, परंतु, यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले और जब लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से कजरी हमारे बीच हैं। सुप्रसिद्ध लोकगीत गायक विष्णु ओझा और विनय मिश्र का कहना हैं कि संगीत विधा में दो राग प्रमुख हैं। कजरी को भोजपुरांचल में राग मल्हार की रागिनी माना जाता है। ऐसे में कजरी का सैकड़ों साल पुराना इतिहास है।

  दूसरे देशों में भी लोकप्रिय है कजरी 

विशेष रूप से मिर्जापुर, वाराणसी, बलिया व बक्सर समेत सभी भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में ही कजरी गाई जाती है। लेकिन, उतर भारत के अलावा कजरी के दीवाने सूरीनाम, त्रिनिदाद और मारीशस जैसे भोजपुरी भाषी देशों में भी हैं। जहां अक्सर भोजपुरी के नामचीन गायकों के द्वारा स्टेज शो में इस पारंपरिक कजरी की फरमाइश होती है।