कानून की चौखट पर लिखी गई इंसानियत की कहानी
आमतौर पर व्यवहार न्यायालय का नाम आते ही दिमाग में तारीखें, बहस, दलीलें और फैसले उभरते हैं। लेकिन बक्सर व्यवहार न्यायालय परिसर में इन दिनों एक ऐसी कहानी जन्म ले रही है, जो किसी केस डायरी में दर्ज नहीं है, फिर भी समाज के लिए मिसाल बन गई है। यह कहानी है, करुणा, संवेदना और उन बेजुबानों की, जिन्हें ठंड से बचाने के लिए इंसान आगे आए।
-- जहां फैसलों से पहले बेजुबानों को मिला न्याय, बक्सर व्यवहार न्यायालय से निकली संवेदना की मिसाल
केटी न्यूज/बक्सर।
आमतौर पर व्यवहार न्यायालय का नाम आते ही दिमाग में तारीखें, बहस, दलीलें और फैसले उभरते हैं। लेकिन बक्सर व्यवहार न्यायालय परिसर में इन दिनों एक ऐसी कहानी जन्म ले रही है, जो किसी केस डायरी में दर्ज नहीं है, फिर भी समाज के लिए मिसाल बन गई है। यह कहानी है, करुणा, संवेदना और उन बेजुबानों की, जिन्हें ठंड से बचाने के लिए इंसान आगे आए।न्यायालय परिसर में वर्षों से रह रहे आवारा कुत्ते और उनके नन्हे पिल्ले हमेशा से यहां की दिनचर्या का हिस्सा रहे हैं। दिन में वे परिसर को बंदरों और असामाजिक गतिविधियों से सुरक्षित रखते हैं, तो रात में चौकीदारों के सच्चे साथी बन जाते हैं।

लेकिन जब ठंड ने दस्तक दी, तब इनके लिए सबसे बड़ा संकट शुरू हुआ।इसी संकट के बीच मानवता का चेहरा बनकर सामने आए न्यायालय के चतुर्थवर्गीय कर्मचारी व रात्रि प्रहरी सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा उर्फ पालजी। उन्होंने न सिर्फ रोजाना इन कुत्तों को भोजन देना शुरू किया, बल्कि सर्द रातों से बचाने के लिए पेड़ के नीचे प्लास्टिक की अस्थायी झोपड़ी भी तैयार कर दी। यह झोपड़ी ईंट-पत्थर से नहीं, बल्कि संवेदना से बनी थी।पालजी कहते हैं कि रात की ड्यूटी में जब पूरा न्यायालय परिसर सन्नाटे में डूब जाता है, तब यही कुत्ते उनके सबसे भरोसेमंद साथी होते हैं। शायद इसी साथ ने उन्हें सेवा के लिए प्रेरित किया।

इस मानवीय प्रयास को नई ऊर्जा तब मिली, जब न्यायालय की अधिवक्ता संध्या जायसवाल ने ठंड से ठिठुरते पिल्लों को देखा। कानून की भाषा में दक्ष संध्या ने उस दिन करुणा की भाषा को चुना। उन्होंने तुरंत दो कंबल दान किए और स्वयं झोपड़ी तक जाकर एक कंबल पिल्लों के लिए जमीन पर बिछाया, जबकि दूसरा प्लास्टिक की छत पर डालकर झोपड़ी को ठंड से और सुरक्षित बनाया।डुमरांव स्टेशन रोड निवासी स्वर्गीय ऋषि जायसवाल की पुत्री संध्या जायसवाल का कहना है कि ये बेजुबान अपनी पीड़ा शब्दों में नहीं कह सकते।अगर हम उनकी तकलीफ देखकर भी अनदेखा करें, तो न्याय और मानवता दोनों अधूरे रह जाते हैं। मैंने तय किया है कि रोज इनकी सेवा करूंगी।

न्यायालय परिसर में यह दृश्य देखने वालों के लिए भावुक कर देने वाला था। जहां आमतौर पर लोग कानून की किताबों में उलझे रहते हैं, वहीं एक अधिवक्ता और एक प्रहरी ने यह दिखा दिया कि इंसानियत किसी पद या पहचान की मोहताज नहीं होती।बक्सर व्यवहार न्यायालय की यह पहल यह संदेश देती है कि न्याय केवल इंसानों तक सीमित नहीं है। जब समाज बेजुबानों की पीड़ा समझने लगता है, तभी सच्चे अर्थों में न्याय की स्थापना होती है।यहां कंबलों से ढके पिल्ले गवाही दे रहे हैं कि करुणा ही सबसे बड़ा कानून है और वही समाज को सचमुच न्यायपूर्ण बनाती है।
