नहीं रहे संस्कृत शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित राम प्रवेश ओझा
पिछले चार दशक से संस्कृत शिक्षा का अलख जगा किशोरों व युवाओं में संस्कृति व नैतिकता का निर्माण करने वाले पंडित राम प्रवेश ओझा का निधन हो गया है।
- विद्वत समाज में शोक की लहर, पैतृक गांव बड़का सिंहनपुरा में गुरूवार को ली अंतिम सांस
केटी न्यूूज/डुमरांव
पिछले चार दशक से संस्कृत शिक्षा का अलख जगा किशोरों व युवाओं में संस्कृति व नैतिकता का निर्माण करने वाले पंडित राम प्रवेश ओझा का निधन हो गया है। वे अपने जीवन के 98 वसंत पार कर चुके थे तथा गुरूवार को पैतृक गांव सिमरी अंचल के बड़का सिंहनपुरा में अंतिम सांस ली। इसके पहले वे हजारों बच्चों को संस्कृति की बेसिक शिक्षा से लेकर व्याकरण, साहित्य व कर्मकांड का ज्ञान दे उन्हें सुसंस्कृत बना चुके है।
उनके निधन से संस्कृत जगत को बड़ा आघात पहुंचा है। स्व. ओझा अपने पीछे दो पुत्रो क्रमशः विमलेश ओझा व ब्रजेश ओझा समेत नाती पोतो से भरा परिवार छोड़ गए है। दोनों वर्तमान समय मंे क्षेत्र के अच्छे कर्मकांडी के रूप में विख्यात हो पिता की विरासत को मजबूती से संभाल रहे है।
उनके निधन की खबर मिलते ही संस्कृत जगत् व विद्वत समाज में शोक की लहर दौड़ गई है। लोगों ने उनके दरवाजे पर पहंुच शोक जताया है तथा उनके निधन को शिक्षक समाज खासकर देव भाषा संस्कृत के लिए अपूरणीय क्षति बताया है। वही, पूरा गांव तथा उनके शिष्य उनके निधन की खबर मिलने के बाद से मर्माहत है।
1980 से संस्कृत की निःशुल्क शिक्षा दे रहे थे स्व. ओझा
बता दें कि स्व. रामप्रवेश ओझा हाई स्कूल में संस्कृत के शिक्षक थे तथा वर्ष 1998 में केपी उच्च विद्यालय डुमरी से सेवा निवृत हुए थे। वे वर्ष 1980 से ही अपने दरवाजे पर इलाके के संस्कृत पढ़ने वाले छात्रों को निःशुल्क शिक्षा दे रहे थे। हर दिन सुबह और शाम उनके दरवाजे पर संस्कृत व्याकरण, साहित्य व कर्मकांड पढ़ने वाले विद्यार्थियों की भीड़ लगती थी।
लेकिन, वे किसी छात्र से एक पैसा ट्यूशन फिस के रूप में नहीं लेते थे। उनका मानना था कि विद्या का दान निःशुल्क करना चाहिए। रिटायर्ड होने के बाद भी उन्होंने पढ़ाना नहीं छोड़ा। वे हर दिन सुबह सात बजे से ग्यारह बजे तक व्याकरण व साहित्य पढ़ाते थे, जबकि दोपहर बाद करीब तीन बजे से शाम तक कर्मकांड की पढ़ाई करने वाले छात्र उनके दरवाजे पर मनोयोग से पढ़ाई करते थे।
दूर दराज से भी आते थे छात्र
स्व. ओझा का संस्कृत भाषा से गहरा लगावा था तथा वे देव भाषा का ज्ञान वर्तमान पीढ़ी को देने के लिए लालायित रहते थे। उनका मानना था कि संस्कृत के शिक्षा के बिना भारतीय संस्कृति का ज्ञान संभव नहीं है। वे अक्सर कहा करते थे कि संस्कृत में नैतिकता व आदर्श के भाव छिपे है।
प्रत्येक व्यक्ति को संस्कृत का ज्ञान होना चाहिए। उनके निःशुल्क पाठशाला में सिंहनपुरा के साथ ही खरहाटांड़, दुबौली, भेड़िया, निबौआ, एकौन, डुमरी, दुरासन, काजीपुर समेत दर्जनों गांवों के छात्र पढ़ने आते थे। यही कारण है कि उनके निधन की खबर के बाद संस्कृत प्रेमियों में मायूशी छाई है।