टीबी से पहले मरीजों से होने वाले भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा: डॉ. बिज्येंद्र

टीबी से पहले मरीजों से होने वाले भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा: डॉ. बिज्येंद्र

- भेदभाव का प्रतिकूल प्रभाव मरीज के इलाज और उसके मानसिक स्थिति पर पड़ता है
- जिसके कारण ही मरीज बीमारी को छुपाना ज़्यादा सही समझते हैं

बक्सर। टीबी उन्मूलन को लेकर राष्ट्रीय क्षय उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत विभिन्न अभियान चलाए जा रहे हैं। इस क्रम में जिले के 10 प्रखंडों के चयनित गांवों में टीबी के नए रोगियों की खोज, जांच व इलाज के लिए विशेष अभियान चलाया जा रहा है। ताकि, उन चिह्नित गांवों से टीबी को पूरी तरह से खत्म किया जा सके। इस क्रम में अभियान की जांच व प्रगति का जायजा लेने के लिए हाल ही में भारत सरकार के सेंट्रल टीबी डिवीजन के डॉ. भाविन वडेरा के नेतृत्व में एक टीम ने इन गांवों में एनटीईपी के तहत किए जा कार्यों का जायजा लिया। ताकि, कार्यक्रम में आ रही जमीनी स्तर पर बाधाओं की जानकारी ली जा सके। हालांकि, जिले में टीबी उन्मूलन के कार्य संतोषजनक हैं। लेकिन, अभी भी ऐसी कुछ बिंदु हैं जिन पर काम किया जाना है। इसमें सबसे पहली और टीबी को लेकर भ्रांतियों और अफवाहों को दूर करना। जिसको लेकर नई रणनीति बनाकर लोगों को जागरूक किया जाएगा, ताकि मरीजों से भेदभाव में कमी हो सके।

कोरोना की तरह टीबी पर पाई जा सकती है जीत :
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एनटीईपी कंसल्टेंट डॉ. कुमार बिज्येंद्र सौरभ के मुताबिक जिस प्रकार कोरोना काल में सबके सहयोग से कोरोना संक्रमण पर जीत पायी गई, ठीक उसी प्रकार टीबी पर भी जीत पाई जा सकती है। जिसमें जिले के सभी वर्गों और समुदाय के लोगों का सहयोग जरूरी है। टीबी एक संक्रामक बीमारी है। हालांकि इसका इलाज उपलब्ध है, पर समाज में इसको लेकर अब भी एक तरह का डर है। यह डर कहीं न कहीं इसके मरीज़ों के साथ भेदभाव का कारण बन जाता है। जिसका प्रतिकूल प्रभाव मरीज के इलाज और उसके मानसिक स्थिति पर पड़ता है। जिसके कारण टीबी के मरीज खुलकर जी नहीं पाते। उन्हें लगता है कि यदि उनकी टीबी की बीमारी के संबंध में किसी को पता चलेगा, तो लोग उनसे भेदभाव करेंगे और उनसे सामाजिक और वैचारिक दूरी बना लेंगे। जिसके कारण वो एक प्रकार के डिप्रेशन में जीने लगते हैं।

टीबी को लेकर डर की वजह :
टीबी को लेकर समाज में अभी भी भ्रांतियां हैं। टीबी हो जाने पर मरीजों के साथ कुछ इस तरह का व्यवहार किया जाता है। जो मरीज को मानसिक रूप से प्रभावित करता है। जो निम्न प्रकार से हैं:
- मरीज के बर्तनों को अलग करना
- उसके साथ बातचीत व मिलने से कटने लगना
- मां को अगर टीबी है तो बच्चे को उससे दूर कर देना, दूध न पिलाने देना
- मरीजों को घर के बाकी लोगों से दूर कर देना

मरीज टीबी की बीमारी के बारे में बात नहीं करते :
भेदभाव के कारण ही मरीज बीमारी को छुपाना ज़्यादा सही समझते हैं, जो कि गलत है। पर ज़्यादातर मामलों में होता यही है। हालांकि, अब भले ही जागरूकता के कारण टीबी चैंपियन अपनी संघर्ष की कहानी को लोगों के साथ साझा करने के लिए खुलकर सामने आने लगे हैं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अब भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो लोगों के बुरे बर्ताव, शादी टूटने, लोगों के दूरी बनाने, नौकरी छूटने जैसे कारणों से टीबी की बीमारी के बारे में बात नहीं करते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि फेंफड़ों की (पल्मोनरी) टीबी का ही संक्रमण फैलने का ख़तरा 15 दिन से दो माह तक रहता है। क्योंकि अगर कोई टीबी का मरीज छींकता है, या खांसता है, तो इसके ड्रॉपलेट पांच फ़ीट तक जाते हैं। ऐसे में, हम मास्क लगाकर और दूरी बनाकर टीबी के संक्रमण को रोक सकते और उसे ख़त्म कर सकते हैं। इसके अलावा आंख, आंत, मस्तिष्क, हड्‌डी, त्वचा यानी एक्स्ट्रा पल्मोनरी टीबी के फैलने का ख़तरा नहीं होता है। फिर भी लोग इससे जुड़ी भ्रांतियों के कारण इसकी चर्चा नहीं करना चाहते हैं।